रामधारी सिह 'दिनकर' का जन्म 23 सितम्बर 1908 ईं. को बिहार राज्य के बेगूसराय जिला के
सिमरिया ग्राम में हुआ था । उनके पिता जी बाबू रवि सिह एक साधारण किसान थे एवं माता मनरूप देवी
एक कुशल गृहणी । दिनकर दो वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहावसान हो गया । दिनकर और उनके
भाई-बहनों का पालन पोषण उनकी विधवा माँ करने लगी, जिसमें उनके हितैषी-कुटुम्ब जनों एवं
पडोसियों का सहयोग भी मिलने लगा । रामधारी सिहं 'दिनकर' प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद पढ़ने
के लिए कई किलो मीटर रोज पैदल चलकर मध्य विद्यालय से लेकर मैट्रिक परीक्षा 1928 में पास
किये । मैट्रिक परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण उन्हें 'भूदेव स्वर्ण पदक' दिया गया । 1932
ईं. में पटना कालेज से इतिहास में प्रतिष्ठा हासिल की । पारिवारिक बोझ के कारण हाई स्कूल बरबीघा
(मुंगेर) में वर्ष 1933-34 में प्राध्यापक पद स्वीकार कियें ।
सब रजिस्टार से लेकर जन संपर्क विभाग, बिहार के उप निदेशक के पद पर उन्होंने कार्य किया ।
स्नातक की डिग्री होने के बावजूद साहित्य से गहरे लगाव और विषय में दक्षता के कारण सन् 1950 में
लंगट सिहं कॉलेज, मुज़फ्फरपुर में हिन्दी के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई । 1952 में
जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ तो उन्हें राज्य सभा से निर्वाचित किया गया जो लगभग 12
वर्षों तक रहे । बाद में दिनकर जी सन् 1964-1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति रहें ।
वर्ष 1965 से 1971 तक भारत सरकार के प्रथम हिन्दी सलाहकार के रूप वे बहूत ही महत्वपूर्ण कार्य
किये । राष्ट्रकवि दिनकर विभिन्न पदों पर रहते हुए साहित्य सृजन में कोई कमी न की और प्रमुख कृति
रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वन्द्गीत, कुरूक्षेत्र, सामधेनी, रश्मिरथी, उर्वशी, संस्कृति के चार अध्याय एवं
अन्य का प्रकाशन किये ।
सन् 1973 ई. में 'उर्वशी' काव्य प्रबंध के लिए उन्हे ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया । लोग उन्हें गर्जन
और हुंकार के कवि के रूप में जानते थें, लेकिन जिस प्रकार प्रकाश के अनेक रंगे होते हैंं, ठीक उसी
प्रकार दिनकर की कविता के भी कई रंग हैं । दिनकर सात्विक क्रोध, कोमल करुणा और अनुपम सौंदर्य
के अदभूत कवि थे । आज भी उनकी कृतियों के अध्ययन, मनन और अनुशीलन से अन्याय एवं शोषण
के खिलाफ़ संघर्ष की अदभूत शक्ति मिलती हैं । दिनकर जी ने अपनी पचास से अधिक ओजस्वी
कृतियों के माध्यम से राष्ट्रीयता की भावना को मजबूती प्रदान की हैं और भारत एवं भारतीय संस्कृति को
गौरवंन्वित किया हैं । हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में दिनकर जी का योगदान अप्रतिम हैं ।
वर्ष 1974 को चेन्नई (तमिलनाडु) में लालाजी तिरूपति दर्शन करने गये थे । दर्शन के कुछ घंटे के बाद
उनका स्वर्गारोहण हो गया ।
ज्ञानपीठ पुरस्कार ने एक शिखर तैयार कर दिया हैं, जिस पर खड़ा होने से आदमी सारे देश को दिखाई पड़ जाता हैं और उत्सव के
दिन क्षण भर को उसे यह अधिकार भी मिल जाता हैं कि वह कुछ बोले और लोग उसकी बातों को सुनें । यह बहुत बड़ा गौरव हैं
और मैं सच्चे हदय से उन सभी सहृदय विद्वानों को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मेरे 'उर्वशी' काव्य को इस पुरस्कार के योग्य समझा
और मुझें इस उच्च शिखर पर खड़ा होने का अवसर प्रदान किया हैं । जिस विशाल देश में सोलह भाषाएँ संविधान द्धारा स्वीकृत हो
और प्राय: सभी भाषाओं में साहित्य-निर्माण बड़ा ही कठिन कार्य हैं । जब भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने पुरस्कार की योजना
पहले-पहल विज्ञापित की थी, उस समय पुरस्कार-योजना के शुभचिन्तक भी मन ही मन सहमे हुए थे । उन्हें चिंता थी कि सभी
भाषाओं को पुस्तकों के बीच तुलना का कार्य किस प्रक्रिया से सम्पन्न किया जाएगा और तुलना करने के पश्चात् जब प्रवर-समिति
किसी ग्रन्थ को सर्वश्रेष्ठ घोषित करेगी, तब प्रवर-समिति का निर्णय सामान्यत: मान्य समझा जाएगा या नहीं ।
किन्तु पिछले आठ
वर्षो के अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया हैं कि यदि सदाशयता हो और पूरा परिश्रम किया जाए, तो यह असम्भव
कार्य भी सम्भव
बनाया जा सकता हैं ।
भारतीय ज्ञानपीठ ने जिस बीहड़ काम में हाथ डाला था, उसमें उसे सफलता प्राप्त हूई । इसलिए वह देश में प्रशंसा का पात्र हो गया
और पिछले आठ वषों में इस पर प्रशंसा के जो पुष्प बरसे हैं, ज्ञानपीठ की सेवा उनके योग्य थी । मेरी दृष्टि में ज्ञानपीठ की इस
सफलता का ऐतिहासिक महत्त्व है । स्वराज्य होने के पूर्व हम अपने देश की अन्य भाषाओं के साहित्यकारों के नाम तब तक नहीं
सुनते थे, जब तक वे रवीन्द्र, प्रेमंचन्द, शरत् या इक़बाल न हो जाएँ । स्वराज्य होने के बाद भारतीय भाषाओं को परस्पर समीप लाने
का आन्दोलन आरम्भ हुआ और हमारी प्रत्येक भाषा के लोग अपने देश की अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ लेखकों के नाम कुछ ज्यादा
सुनने लगे । इस दिशा में साहित्य अकादमी ने जो कार्य किया है, उसकी महिमा स्पष्ट है । किन्तु इतना कुछ होने पर भी साहित्य में
अखिल भारतीय मंच की कल्पना निराकार की निराकार ही रही। उसे साकार करने का श्रेय इतिहास भारतीय ज्ञानपीठ को देगा,
इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं हैं । भारतीय ज्ञानपीठ ने भारत-राष्ट्र का एक बहुत बड़ा कार्य कर दिया, जिसके लिए मैं उसे बधाई
देता हूँ।
ज्ञानपीठ-पुरस्कार में केवल साहित्य की ही सेवा नहीं हो रहीं है, उससे भारत की भावात्मक एकता में भी वृद्धि हो रही हैं । भारत
अपने बौद्धिक व्यक्तित्व को भी ऊपर उठा रहा है, साहित्य के क्षेत्र में उसके आत्मविश्वास में भी वृद्धि हो रही है और, अप्रत्यक्ष
रूप से, वह अंग्रेजी के दबाव से भी निकलता जा रहा है ।
ज्ञान का साहित्य मनुष्य किसी भी भाषा में लिख सकता है, जिससे उसने भलीभांतिे सीख लिया हो, किन्तु रस का साहित्य वह
केवल अपनी भाषा में रच सकता है । प्रत्येक ऐसे देश की आत्मा, जिसका कोई इतिहास है, उस देश की अपनी भाषा में बोलती है ।
भारत की भाषा उसकी अपनी भाषा है । अंग्रेजी के माध्यम से हमने भारत की महिमा का प्रचार किया है। अन्यथा अंग्रेज और
अंग्रेजी के युग में भी भारत की आत्मा की भाषा उसकी अपनी ही भाषा थी । भारतीय भाषाओं का पुजारी होने के कारण भारतीय
ज्ञानपीठ श्रद्धा का पात्र है । मैं श्रद्धा के भाव से उसे प्रणाम करता हूँ। अपनी भाषा की उन्नति करना और उन्नत देशों की भाषाएँ
सीखना, ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य नहीं हैं। किन्तु भारत को यदि मौलिक राष्ट्र बनाना है, तो उसकी अपनी भाषाओं को सर्वाधिक महत्व देना ही पड़ेगा ।
अब मैं असमंजस में हूँ कि ज्ञानपीठ को धन्यवाद देने के पश्चात् आज मुझे बोलना क्या चाहिए । देश की रक्षा के लिए किया जाने
वाला संघर्ष बड़ा, परिवार की रक्षा के लिए किया जाने वाला संघर्ष छोटा होता है । फिर भी देने सारी आयु इसी छोटे संघर्ष में
बितायी है । दिन का जो ताजा हिस्सा था वह परिवार के लिए रोटी कमाने में गया । उसके बाद जो अवसाद की घडियाँ होती हैं,
उन्हीं में मैंने साहित्य की साधना की है। फिर भी साहित्य-संसार ने मेरी ओर आँख उठाकर देखने की कृपा की, इसे मैं अपना
सौभाग्य और उस प्रभु का वरदान समझता हूँ जिसकी कृपा से मूक बोलते और पंगु पर्वतारोहण करते हैं ।
लगता है, पृथ्वी पर आने के पूर्व जब भगवान को प्रणाम करने गया, वे कलाकारों के बीच छेनी, टाँकी, हथौड़ी, कूँची और रंग बाँट
रहे थे । लेकिन भगवान ने मुझे छेनी, टाँकी और हथौड़ी नहीं दी, जो पच्चीकारी के औजार हैं। उनके भण्डार में एक हथौड़ा पड़ा
हुआ था । भगवान ने वही हथौड़ा उठाकर मुझे दे दिया और ( जरा-सी आत्मश्लाघा के लिए क्षमा कीजिए ) कहा कि जा, तू इस
हथौड़े से चट्टान का पत्थर तोड़ेगा और तो तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी काल के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे ।
लगता हैं, जब मैं हथौड़ा लेकर चला, मैं छेनी और टाँकी की और मुड़-मुड़कर लोभ से देख रहा था । वह लोभ मुझे जीवन-भर
सताता रहा है और जीवन-भर मैं इस विचिंकित्सा में पड़ा रहा हूँ कि कविता का वास्तविक प्रयोजन क्या है । क्या वह मनुष्य को
जगाने, सुधारने और उन्नत बनाने के लिए है? या उसका काम आदमी को रिझाना और उसे प्रसन्न करना है, या इनमें से कोई भी
ध्येय कविता का ध्येय नहीं है? जैसा कि एज़रा पाँउण्ड ने कहा है, कविता केवल कविता है, जैसे वृक्ष केवल वृक्ष है । वृक्ष अपनी
जगह पर स्थिर खडा है । वह किसी को भी नहीं बुलाता । फिर भी लोग उसकी हरियाली को देखकर खुश होते हैं, उसकी छाया में
बैठते हैं और पेड़ अगर फलदार हुआ, तो वे फलों को तोड़कर खा लेते हैं । चेतना के तल में जो घटना घटती है, जो हलचल मंचती
है, उसे शब्दों में अभिव्यक्ति देकर हम सन्तोष पाते हैं । यही हमारी उपलब्धि हैं यदि देश और समाज को उससे कोईं शक्ति प्राप्त
होती है, तो वह अतिरिक्त लाभ है । किन्तु इतना जरूर है कि पेड़ मनुष्य और पक्षियों के नहीं रहने पर भी फूल और फल सकते हैं,
किन्तु पाठक और श्रोता न रहें, तो कवि कविता लिखेगा या नहीं इसमें मुझे भारी सन्देह है । अगर सारी दुनिया खत्म हो जाए और
केवल एक आदमी जीवित खडा हो, तो कवि होने पर भी, वह कविता शायद ही लिखेगा। मेरी दृढ़ धारणा हैं कि कविता व्यक्ति
द्वारा सम्पादित सामाजिक कार्य है और शुद्ध कविता भी समाज के लिए ही लिखी जाती है ।
अपने निर्माण के दिनों में प्रत्येक नये कवि को, उस एक महाकवि का पता लगाना पड़ता है, जिसके समान वह बनना चाहता है ।
मेरा दुर्भाग्य या सौभाग्य यह रहा है कि मैंने एक के बदले ऐसे दो महाकवियों का पता लगा लिया, जिनके समान बनने की मुझमें
उमंग थी । इनमें से एक थे श्री रवीन्द्रनाथ ठाकूर, जिनके नाम की सारे संसार में धूम थी और जिनके प्रभाव में आकर भारत की कई
भाषाओं में छोटे-छोटे रवीन्द्रनाथ पैदा हो गये थे; और दूसरे थे सर मोहम्मद इक़बाल, जिन्हें नोबेल पुरस्कार तो नही मिला था मगर
जिनको कविताएँ पाठकों के रुधिर में आग की तरंगे उठती थी, मन के भीतर चिन्तन का द्वार खोल देती थी ।
प्रभाव तो इन दोनों कवियों का मुझ पर पहले ही पढ़ गया । यह पता बहुत बाद को चला कि रवीन्द्र और इक़बाल दो ध्रुवों के कवि
हैं और वे अकसर आमने-सामने के दो विरोधी क्षितिजों में बोलते हैं । भगवान के प्रति रवीन्द्रनाथ का भावसम्पूर्ण आत्म-समर्पण
का भाव था
प्रभु तोमा लागि आँखि जागे ।
देखा नाइ पाइ, शुधू पथ चाइ,
सेओ माने भाले लागे ।
किन्तु इक़बाल भगवान के उस प्रकार के भक्त थे जो चाहता है कि मैं भगवान में लीन नहीं होऊँगा, भगवान को ही मुझमें विलीन
होना पड़ेगा
खुदी को का बुलन्द इतना
कि हर तक़दीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे,
बता, तेरी रज़ा क्या है?
यह भी कि रवीन्द्रनाथ उपयोगिता को कोई महत्त्व नहीं देते थे । जहाँ तक उपयोगिता का सवाल है आदमी और जानवर में कोई भेद
नहीं है । मनुष्य का असली व्यक्तित्व तब बनता हैं, जब वह उपयोगिता के घेरे को लाँघकर ऐसी भूमि में पहुँच जाता है जो
निरुद्देश्य आनन्द की भूमि है, जहाँ मनुष्य आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर साहित्य का सृजन नहीं करता, न सामाज के किसी
स्थूल प्रयोजन की पूर्ति के लिए कविता या चित्र बनाता है ।
रवीन्द्रनाथ की तरह इक़बाल भी मानते हैं कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है । किन्तु, व्यक्तित्व की परिभाषा उनकी कुछ और
है । जो अभी आराम में है, जो संघर्ष से दूर है, जो बड़े मक़सदों को हासिल करने के लिए जछोजहद नहीं कर रहा है, इक़बाल उस
मनुष्य को व्यक्तित्वहीन समझते हैं। व्यक्तित्व की स्थिति संघर्ष की स्थिति होती है, तनाव की स्थिति होती है, और जो आदमी
जितने ही अधिक तनाव में है, उसका व्यक्तित्व भी उतना ही बड़ा और बलवान है ।
शुरू में ही मुझ पर रवीन्द्र और इक़बाल का जो विरोधी प्रभाव पढ़ गया, उसके कारण मैं काफी वषों तक बेचैन रहा । मेरे निर्माण
का समय वह था जब गाँधी जी समस्त देश को जीवन, जागरण, प्रेरणा और संघर्ष से आलोड़ित कर रहे थे । ऐसा समय क्या
कोमल, वायवीय, निरुद्देश्य गीतों का समय होता है? अथवा सम्भव है कि पराधीनता का विरोध, शोषण और साम्राज्यवाद पर प्रहार
तथा समता के समर्थन में गान मैंने भी प्रचार के लिए नहीं, बल्कि इसलिए किया था कि वैसा करना मुझे अच्छा लगता था,
आनन्ददायी मालूम होता था । कॉलेज में वर्ड्स्वर्थ की ये पंक्तियाँ कदाचित् मैंने भी पढ़ी होंगी-
The gods approve the depth
And not the tumult of the soul
लेकिन जवानी भर मुझे इसकी परवाह ही नहीं रही कि देवताओं की पसन्द क्या है । मुख्य बात यह थी कि गर्म लोहे पर हथौड़े की
चोट जोर से पड़ती है या नहीं । मैं रन्दा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था । मेरे हाथ में तो कुल्हाडी थी । मैं जड़ता की
लकडियों को फाड़ रहा था ।
लेकिन मुझे राष्ट्रीयता, क्रान्ति और गर्जन-तर्जन की कविताएँ लिखते देखकर मेरे भीतर हुए रवीन्द्रनाथ दु:खी होते थे और
संकेतों में कहते थे, "तू जिस भूमि पर कामकर रहा है, वह काव्य के असली स्रोतों के ठीक समीप नहीं है ।" तब मैं 'असमय
आह्वान' में, 'हाहाकार' में तब अन्य कई कविताओं में अपनी किस्मत पर रोता था कि हाय, काल ने इतना कसकर मुझे ही क्यो
पकड़ लिया? मेरे भीतर जो कोमलस्वप्न हैं, वे क्या भीतर मुरझाकर मर जाएँगे? उन्हें क्या शब्द बिलकुल ही नहीं मिलेंगे?
लेकिन शब्द इन कोमल स्वप्यों को भी मिले । 'रसवन्ती' और 'द्वन्द्व-गीत' इन्हीं कोमल कविताओं के संग्रह हैं किन्तु विरुद मेरा
चारण और वैतालिक का ही रहा । 'हुंकार' के आमुख में मैंने स्वयं स्वीकार किया था
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि,
बुनो कल्पना की जाली ।
तिमिर-ज्योति की समर भूमि का
मैं चारण, मैं वैताली ।
तब सन् 1943 के आसपास मेरा परिचय 'अदृश्यकवि ' इलियट की कविताओं से हुआ । यह मेरी काव्य-चेतना में आनेवाला पहला
भूडोल था । पूर्व इसके कि युग की बीमारी अपनी हस्ती का ऐलान करे, कवि को चाहिए कि वह युग को कह दे कि हुम बीमार हो
या होने वाले हो। इलियट की कविताएँ पुरी तरह मेरी समझ में नहीं आयी, लेकिन तब भी मैं मान गया कि उन्होंने युग को यह
चेतावनी दे दी है ।
मैं बडी ही निश्चिन्ता और आत्मविश्वास के साथ गाता जा रहा था, साम्राज्यबाद को कुरूप छाती में अपने गीतों के खंजर चुभोता
आ रहा था, पराधीनता को बेड़ियों पर उस हथौड़े से प्रहार करता आ रहा था, जो मुझे भगवान से प्राप्त हुआ था । किन्तु, इलियट को
पढ़ते ही मैं थोडी देर के लिए ठिठककर रह गया । अरे, इलियट की कविताएँ हम लोगों की कविताओं यानी मेरे गुरु रवीन्द्रनाथ
और इक़बाल की कविताओं से कितनी भिन्न है! फिर मन ने कहा यह अवश्य ही परिस्थितियों का भेद है । इलियट उस दुनिया के
कवि हैं, जो दुनिया समृद्धि की अधिकता से बेजार है, जिस दुनिया ने आत्मा को सुलाकर शरीर को जगा लिया है । किन्तु हम तो
पराधीन देश के कवि हैं । हमारा तो कोई देश ही नहीं है फिर हम 'मरु देश' की कल्पना केसे कर सकते हैं?
मगर इलियट को मैं चाहे जितना भी भूलना चाहता, मैं उन्हें भूल नहीं पाता था । उनकी कविताएँ समझ में भले ही नहीं आती हों,
किन्तु वे मेरी शान्ति भंग करने में समर्थ थीं, मेरे मन को वे अकसर उस दिशा में भेज देती थीं जिस दिशा में कहीं कोई क्षितिज नहीं
था, न की किताब खुलकर बन्द होती थी । मेरी चेतना के घाट बँध चुके थे, मेरी चमड़ी मोटी हो चुकी थी, मेरे मुहावरे अब बदले
नहीं जा सकते थे । अतएव, इलियट के लिए यह असम्भव कार्य था कि वे मुझे बदलकर अपनी राहपर लगा ले । लेकिन मन बराबर
यह महसूस करता रहा कि इलियट रवीन्द्र और इक़बाल से छोटे हो या बडे, यह अलग बात है, किन्तु वे उन दोनों से भिन्न हैं और
उनके साथ कविता में कोई ऐसी अदा उतरी है, जो संसार में और कभी दिखाई नहीं पड़ती थी । उस समय मैं यह क्या जानता था
कि नवीनता का पाठ कविता ने इलियट में ही आकर नहीं पढा! यह पाठ इलियट की कविताओं से कोई पचास वर्ष पूर्व वह फ्रान्स
में पढ़ चुकी थी । लेकिन भारतवासियों को तो भारत से बाहर केवल अंग्रेज नही बदले, भारतवासियों ने कविता के क्षेत्र में बदलने
की बात सोची भी नहीं, जो बिल्कुल स्वभाविक बात थी ।
आगे चलकर श्री अरविन्द के एक लेख में मैने पढ़ा कि भविष्य की कविता मन्त्र के समान छोटी और वैसी ही प्रभावशलिनी
होगी । इलियट की कविता, मन्त्र कविता का पूर्वाभास है । कविता जिस साधना में लगी हूई है, उसमें यदि वह सफल हो गयी, तो
मन्त्र की तरह संक्षिप्त होना उसका स्वभाव हो जाएगा और वह संकेत में इस प्रकार बोलेगी मानो आगामी पीढ़ियों को कवि चिट्ठी
नहीं, तार भेज रहा हो। मुझे उन कवियों और आलोचकों पर तरस आता हैं जो इलियट की गणना साहित्य के लकड़बरघों में
करते हैं ।
रवीन्द्र और इक़बाल ने मेरे ह्रदय-सरोवर को खूब हिलकोरा था । जब सरोवर किंचित् जड़ होने लगा, उसे इलियट और उनके
समानधर्मी कवियों ने फिर से हिलकोर दिया । नयी कविता से मेरे घबराने का एक करण यह था कि वह मेरी समझ में नहीं आती
थी । दूसरे, उसने छन्द की राह छोड़ दी थी । किन्तु जब मैने देखा कि चित्रकारी बालू और कोलतार से तथा मृर्तिकारी लोहे के तारों
से की जा रही है, तब मैंने भी यह मान लिया कि कविता का गघ में लिखा जाना कोई अनुचित बात नहीं है ।
मुझे जो कुछ बनना था, रवीन्द्र और इक़बाल की कृपा से मैं बन चुका था । जब मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि मुझ पर कविता के नये
आन्दोलन का भी प्रभाव पड़ेगा । लेकिन जो बात जवानी में नहीं हो पायी, वह बुढापे में आकर हो गयी। इस प्रभाव का अदृश्य
आरम्भ 'नील कुसुम' में हुआ, उसका दृश्य प्रमाण 'हारे को हरि नाम' में मौजूद है । धर्म में निराकार से साकार की ओर गया हूँ।
कविता में मेरी यात्रा साकार से निराकार की ओर है । पहले मैं यह जानता था कि कविता कहाँ से आ रही है और वह किस तरफ
को जाएगी । अब मुझे यह मालूम ही नहीं होता कि कविता कहाँ से आती है और क्या उसका गन्तव्य है ।
कविता युग के संचित ज्ञान का आख्यान नहीँ है । कविता का क्षेत्र ज्यों-ज्यों नवीन होता जाता है, कवि त्यो-त्यों अधिक गहराई में
उतरता जाता है, और ज्यों-ज्यों वह गहराई में उतरता जाता है त्यो-त्यों यह बताने में यह अधिक असमर्थ होता जाता है कि यह
सत्य है और वह सत्य नहीं है । कविता की जो यात्रा गहराई की ओर है, वहीं उसे अनेकान्त की ओर लियें जा रही है । कवि यह
जान गया है कि कोई भी बात जोर से बोलने के योग्य नहीं है । इसलिए अब वह निश्चित और अनिश्चित, ज्ञात और अज्ञात के
सन्धिस्थल पर काम करता है । मनुष्य इतनी बार धोखा खा चुका है कि उसे अब किसी भी ज्ञान पर विश्वास नहीं रहा और सत्य
को उसने इतनी बार बदलते देखा है कि वह कहीं भी दुराग्रह-पूर्वक आने को तैयार नहीं है । इसका प्रभाव कविता पर पड़ना
स्वाभाविक था । कविता अब सत्य का उदृघोष नहीं, उसके अनुसन्धान का प्रयास है । मैं भी 'उर्वशी' में लिखने के बदले
अनुसन्धान के काम में ज्यादा लगा रहा हूँ। यह ठीक है कि 'उर्वशी' बहूत-से संचित ज्ञान का कथन बड़े ही उत्साह के साथ करती
है, किन्तु, वह सब का सब सच है या नहीं, यह बात मुझे भी मालूम नहीं है । कविता में एक स्थिति वह भी आती है, जब कवि को
अपने अहं का लोप करना पड़ता है अथवा समाधि की स्थिति में देर तक टिके रहने से कवि के अहं का आप से आप लोप हो
जाता है । तब तो भूमि रिक्त रह जाती है, वहाँ कहीं से स्नस्त होकर कविता खुद-ब-खुद उतर आती है । 'उर्वशी' में ऐसे कई स्थल
हैं। किन्तु उनके बारे में अधिकार पूर्वक बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि जहाँ-जहाँ ऐसे स्थल आये हैं, मेरा अस्तित्व
विलुप्त हो गया है । वहाँ जो हैं, वह कविता है, मैं नहीं हूँ।
इस प्रसंग में 'उर्वशी' को 'कुरुक्षेत्र' से मिलाकर देखने की उत्सुकता स्वाभाविक है । 'कुरुक्षेत्र' में प्रकाश है, 'उर्वशी' में द्वाभा और
गोधूलि हैं । 'कुरुक्षेत्र' की वाणी विश्वास की वाणी है, 'उर्वशी'- की वाणी संशय और द्विधा से आक्रान्त है । 'कुरुक्षेत्र' में मैँ
धृष्टतापूर्वक गुरु के पद से स्वयं बोल गया हूँ। 'उर्वशी' की ऊँचाई पर पहुँचकर मुझे ऐसा लगा कि काश, कोई गुरु मिल जाता, तो
उससे पूछ लेता कि असली रहस्य क्या है ।
अपने स्वप्न, अपनी कल्पना की व्याख्या कवि स्वयं नहीँ कर सकता, न यह काम करने की उसे कोशिश करनी चाहिए। कवि:
करोति का व्यानि रसं जानन्ति पण्डिताः । फिर भी मैने यह विवर्जित कार्य इसलिए किया कि मुझे लगा कि इससे आपका किंचित
मनोरंजन हो जाएगा । यह वह युग है, जिसमें माध्यम प्रमुख, सन्देश गौण हो गया है । लोग कविता कम, कविता के बारे में अधिक
सुनना चाहते हैं। कवि की जीवनियाँ आज ज्यादा बिकती हैं, उनकी कविताओं की बिक्री कम हो गयी है । कवि की कविता से
अधिक महत्त्व अब कवि के साथ की गयी भेंट-वार्ता को दिया गया है । जिस सभ्यता में हम जी रहे हैं, वह चौकोर व्यक्तित्वालों
की नहीं, विशेषज्ञों की सभ्यता है । ज्ञान के वृक्ष की डालियों अब बढ़कर इतनी स्वतन्त्र हो गयी है कि एक डाल पर बसने वाला
पक्षी दूसरी डाल के पक्षी की बोली समझने में असमर्थ है । एक समय ऐसा भी था, जब गेलीलियो, वैज्ञानिक होने पर भी, कविता
करते थे और लियोनाडो द बिंची को, कलाकार होने पर भी, विज्ञान की सारी बातें मालूम थीं। भारत में तो कवि अकसर ज्योतिषी
भी हुआ करते थे । खाखाना अब्दुर रहीम केवल शायर ही नहीं, ज्योतिषी और सिपहसालार भी थे । लेकिन अब समय ऐसा आ
गया है कि भौतिकी के सारे आविष्कार गणित के फॉरमूलों को समझ सकें। नतीजा यह है कि वैज्ञानिक की बातें सभी वैज्ञानिकों
की समझ में नहीं आतीं। इसी प्रकार कवियों की कविताएँ भी कुछ खास-खास कवि ही समझ पाते हैं। यह स्थिति कविता के
लिए सामान्य नहीं, अच्छे-खासे सुधी पाठकों के लिए भी दुखदायी हो रहीं है । काश, कोई ऐसा कवि पैदा होता, जो इलियट और
रिल्के के स्वप्नों को तुलसी की सरलता से लिखने का मार्ग निकाल देता ।
देवियों और सज्जनो, अन्त में अपने जीवन का एक और भेद बताकर मैं अपना वक्तत्व समाप्त करता हूँ जिस तरह मैं जवानी भर
इक़बाल और रवीन्द्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन-भर, गाँधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसीलिए
उजले को लाल से गुणा करने पर जो रग बनता है, वहीं रग मेरी कविता का रंग है । मेरा विश्वास है कि अन्ततोगत्वा यही रंग
भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा ।
जय वाग्देवी! जय हिन्द!
परिचय
- हुंकार
दिनकर साहित्य
काव्य
1. बारदोली-विजय संदेश
1928
2. प्रणभंग
1929
3. रेणुका
1935
4. हुंकार
1938
5. रसवन्ती
1939
6. द्वन्द्गीत
1940
7. कुरूक्षेत्र
1946
8. धुप-छाह
1947
9. सामधेनी
1947
10. बापू
1947
11. इतिहास के आँसू
1951
12. धूप और धुआँ
1951
13. मिर्च का मजा
1951
14. रथिमरथी
1952
15. दिल्ली
1954
16. नीम के पत्ते
1954
17. नील कुसुम
1955
18. सूरज का ब्याह
1955
19. चक्रवाल
1956
20. कवि-श्री
1957
21. सीपी और शंख
1957
22. नये सुभाषित
1957
23. लोकप्रिय कवि दिनकर
1960
24. उर्वशी
1961
25. परशुराम की प्रतीक्षा
1963
26. आत्मा की आँखें
1964
27. कोयला और कवित्व
1964
28. मृत्ति-तिलक
1964
29. दिनकर की सूक्तियाँ
1964
30. हारे की हरिनाम
1970
31. संचियता
1973
32. दिनकर के गीत
1973
33. रश्मिलोक
1974
34. उर्वशी तथा अन्य श्रृंगारिक कविताएँ
1974
गद्य
35. मिटूटी की ओर
1946
36. चित्तोड़ का साका
1948
37. अर्धनारीश्वर
1952
38. रेती के फूल
1954
39. हमारी सांस्कृतिक एकता
1955
40. भारत की सांस्कृतिक कहानी
1955
41. संस्कृति के चार अध्याय
1956
42. उजली आग
1956
43. देश-विदेश
1957
44. राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीय एकता
1955
45. काव्य की भूमिका
1958
46. पन्त-प्रसाद और मैथिलीशरण
1958
47. वेणु वन
1958
48. धर्म, नैतिकता और विज्ञान
1969
49. वट-पीपल
1961
50. लोकदेव नेहरू
1965
51. शुद्ध कविता की खोज
1966
52. साहित्य-मुखी
1968
53. राष्ट्र-भाषा-आंदोलन और गांधीजी
1968
54. हे राम!
1968
55. संस्मरण और श्रृांजलियाँ
1970
56. भारतीय एकता
1971
57. मेरी यात्राएँ
1971
58. दिनकर की डायरी
1973
59. चेतना को शिला
1973
60. विवाह की मुसीबतें
1973
61. आधुनिक बोध
1973